१. गूढ़ लिङ्गं व्याधिमुपशयानुपशयाभ्यां परीक्षेत्।। (च.वि. ४/८)
किसी व्याधि के लक्षण अति अल्प हो अथवा छुपे हुये हो तो रोगों का निदान (Diagnosis) उपशय व अनुपशय द्वारा किया जाता है। गूढ़ लिङ्ग व्याधियों की परीक्षा 'उपशय-अनुपशय' द्वारा की जाती है।
जैसे- शोथ स्नेहन, उष्ण उपचार तथा मर्दन से शांत होता है स्नेहनादि को उपशय कहते हैं।
२. हेतु व्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तकारिणाम्।
औषधान्न विहारणामुपयोगं सुखावहम्।।
विद्यादुपशयं व्याधेः सहि सात्म्यमिति स्मृतः।
विपरीतोऽनुपशयो व्याध्यसात्म्यमिति स्मृतः।। (अ.ह.नि. १/६-७)
"औषध अन्ना विहरनम उपयोगम सुखावाहम्" का अर्थ है कि जिस औषध, अन्न और विहार के प्रयोग से रोगी को सुख पहुँचे अर्थात् रोग के लक्षणों में हीनता आये, उसे 'सात्म्य' या 'उपशय' कहते हैं तथा इसके विपरीत जिस
औषध, अन्न और विहार के प्रयोग से रोग के लक्षण और उग्र स्वरूप धारण कर लें, वह उस रोग का ‘अनुपशय' कहलाते हैं। जिसमे औषध का अर्थ है दवा जिससे व्यधि के लक्षण को कम किया जा सके; अन्न का अर्थ है भोजन जो हम ग्रहण करते है; और विहार का अर्थ है नित्य कर्म जो हम रोज करते है।
जब व्याधि अल्प बल या पुर्वरुप मे हो तो संभवतः दो या तीन दोष शामिल हैं, तो विकार के प्रकार को निर्धारित करना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में आयुर्वेद उपशय के प्रयोग की सलाह देता है। उपशय का एक सरल क्रिया है जिससे व्याधि के लक्षण को कम किया जा सकता है।
उपशय को ‘सात्म्य' भी कहते हैं। आचार्य चरक ने हेतु विपरीत, व्याधि विपरीत, हेतु व्याधि विपरीत, हेतु विपरीतार्थकारी, व्याधि विपरीतार्थकारी, हेतु व्याधि विपरीतार्थकारी औषध, अन्न तथा विहार के सुखानुबन्धी उपयोग को 'उपशय' कहते है।
चक्रपाणि के अनुसार- उपशय का प्रयोग गूढ लिङ्ग के ज्ञान उपाय के लिए किया जाता है। उपशय के प्रयोग
द्वारा सुख का अनुबन्ध अर्थात् पश्चात् काल में आरोग्य के रूप में सुख उत्पन्न करने वाला होता हैं। उपशय को सात्म्य भी कहा जाता हैं।
उदाहरण के रुप मे- १) अस्पष्ट पेट दर्द और फैलाव का मामला है। यदि हम बाहरी रूप से उदर क्षेत्र में अरंडी के तेल का गर्म पैक लगाते हैं और यह दर्द से राहत देता है, तो यह एक वात विकार का संकेत देता है। यदि यह दर्द को बढ़ा देता है, तो यह दर्शाता है कि यह पित्त की समस्या है। एक और उदाहरण है
२) तेज बुखार, जो कि पित्त बढ़ जाता है। यदि सुतशेखर का उपयोग किया जाता है और यह ठीक नहीं करता है, या यह स्थिति को और बढ़ाता है, तो यह इंगित करता है कि यह एक निराम (विषाक्त पदार्थों के बिना) प्रकार का पित्त बुखार है। यदि सुतशेखर लक्षणों को गायब कर देता है, तो इसका मतलब है कि यह एक प्रकार का पित्त ज्वर है। तीसरा उदाहरण
३) अस्थमा इस स्थिति वाले व्यक्ति को मुलेठी दे सकते हैं हर दस मिनट में एक घूंट में चाय, यदि अस्थमा है, तो लक्षणों से तुरंत राहत मिलेगी, लकिन अगर हृदय संबंधी अस्थमा के मामले में, यह राहत नही मिलेगी। उपशय से हम एक निश्चित निदान पर पहुंच सकते हैं। उपाय करने से जब व्यधि के लक्षण मे राहत मिलता है तो वह उपशय कहलाता है और उपाय करने से जब व्यधि के लक्षण मे राहत नही मिलता है तो वह अनुपशय कहलाता है
परिभाषा:-
उपशय: पुनर्हेतुव्याधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणां चौषधाहारविहाराणामुपयोगः सुखानुबन्धः।।
(च. वि. 1/10)
हेतुविपरीत, व्याधिविपरीत, हेतुव्याधिविपरीत, हेतुविपरीतार्थकारी, व्याधि विपरीतार्थकारी, हेतुव्याधिविपरीतार्थ-
कारी औषध, अन्न और विहारके सुखावह उपयोग को उपशय कहते है। विपरीतार्थकारी = सम् समं शमयति' या
'विषस्य विषमौषधेम्' के सिद्धान्त पर आधारित है विपरितार्थकारी द्रव्य निदान के समान होते हुये भा व्याधि का
शमन करते है क्योंकि इनके सेवन से धातुवैषम्य की वृद्धि होगी जिससे प्रारम्भ में रोग की वृद्धि होकर पश्चात् दोषों
का निर्हरण हो जाने से रोग भी शान्त हो जाता है इस प्रकार विपरीतार्थकारी द्रव्य प्रयोग से व्याधि का शमन होता है। जो अपनी आत्मा के लिए सुखकारी हो उसे सात्म्य कहा जाता है। सात्म्य तथा उपशय एकार्थवाची शब्द हैं।
आनूप आदि देशों के विपरीत रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव आहार, औषध एवं चेष्टा से रोग एवं उसके हेतु के विपरीत अर्थ की प्राप्ति हो या रोग का शमन हो उसे सात्म्य कहा जाता है।
भेद:- उपशय छ: प्रकार का होता है-
उपशय: पुनर्हेतुव्याधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणां चौषधाहारविहाराणामुपयोगः सुखानुबन्धः।।
(च. वि. 1/10)
हेतुविपरीत, व्याधिविपरीत, हेतुव्याधिविपरीत, हेतुविपरीतार्थकारी, व्याधि विपरीतार्थकारी, हेतुव्याधिविपरीतार्थ-
कारी औषध, अन्न और विहार के सुखावह उपयोग को उपशय कहते है। विपरीतार्थकारी = सम् समं शमयति' या
'विषस्य विषमौषधेम्' के सिद्धान्त पर आधारित है विपरितार्थकारी द्रव्य निदान के समान होते हुये भी व्याधि का
शमन करते है क्योंकि इनके सेवन से धातुवैषम्य की वृद्धि होती है जिससे प्रारम्भ में रोग की वृद्धि होकर पश्चात् दोषों का निर्हरण हो जाने से रोग भी शान्त हो जाता है और इस प्रकार विपरीतार्थकारी द्रव्य प्रयोग से व्याधि का शमन हो जाता है।
१. हेतु विपरीत
२. हेतु विपरीतार्थकारी
३. व्याधि विपरीत
४. व्याधि विपरीतार्थकारी
५. हेतु-व्याधि विपरीत
६. हेतु व्याधि विपरीतार्थकारी
उपरोक्त छ: प्रकार के उपशय औषध-अन्न व विहार के प्रयोग से पुन: तीन-तीन प्रकार के होते हैं यथा हेतु विपरीत औषध, हेतु विपरीत अन्न आदि। इस प्रकार उपशय अठारह प्रकार का होता है। इनका संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
१. हेतु विपरीत उपशय-दोष प्रकोपक हेतु के विपरीत गुण वाले आहार-औषध व विहार का प्रयोग हेतु विपरीत उपशय' कहलाता है।
१. हेतु विपरीत
(अ) हेतु विपरीत औषध-
हेतुविपरितमौषधम्, यथा शीतकफज्वरे शुण्ठयद्युष्वं भेषजम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
ये च शीतकृता रोगास्तेषां मुष्णं भिषगजितम् (च. नि. 1/10 गंगाधर टीका)
शीतजन्य कफज्वर में शुण्ठी सदृश्य उष्ण औषध का प्रयोग करने से वह उष्ण एवं कफ नाशक
होने के कारण शीतकफज्वर को नष्ट करती है। आचार्य गंगाधर के कहा कि उष्णवातजन्य रोगों की शान्ति शीत प्रयोग तथा शीतजन्य रोगों की शान्ति उष्णप्रयोग से करते हैं।
(ब) हेतु विपरीत अन्न—
हेतुविपरीतमन्नं, यथा श्रमानिलजे ज्वरे रसौदनः। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
परिश्रम करने से उत्पन्न श्रमजन्य वात ज्वर में स्निग्ध एवं तर्पक मांसरस युक्त वात नाशक भात देना चाहिये।
(स) हेतु विपरीत विहार-
हेतुविपरीतो विहार: यथादिवास्वप्नोत्थकफे रात्री जागरणम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
दिवास्वप्न जन्य कफ के नाश के लिये रात्रिजागरण उपयुक्त होता है। जैसे दिन में सोने से कफ की वृद्धि होती है मैं और रात्रि में जागाने सो
या शीतल स्थान में उठने-बैठने-सोने से वात की वृद्धि होती है
२. व्याधि विपरीत उपशय-
जिस औषध, आहार व विहार के प्रयोग से व्याधि
के लक्षणों का शमन हो वह 'व्याधि विपरीत उपशय' कहलाता है। यथा-
(अ) व्याधि विपरीत औषध-
व्याधि विपरीतमौषधम्, यथा अतिसारेस्तम्भनं पाठादि। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
व्याधिविपरीतमौषधं यथा रौक्ष्यगुणतो वातवृद्धौ स्निग्धं भद्रदादिकम् अतिसारे स्तम्भनं पाठादि।
विषे शिरिषः। कुष्ठे खादिरः प्रमेहे हरिद्रा। तृष्णाहनादिकम् दशकं दशकम्। (च. नि. 1/10 गंगाधर टीका)
अतिसार में पाठा तथा कुटज स्तम्भक होने से व्याधिविपरीत औषध है। शिरीष विष को, खदिर कुष्ठ को और हरिद्धा प्रमेह को नष्ट करने वाली औषध है, यह द्रव्य दोष विशेष की अपेक्षा न करते हुये प्रभाव से रोग को शान्त करते हैं अतः इन्हें व्याधिविपरीत औषध कहते हैं।
व्याधि प्रत्यनीक औषध द्रव्य न केवल व्याधि को नष्ट करते है वरन् दोष को भी शान्त करते हैं। अतिसार रोग में मल को रोकने के लिए स्तम्भन औषध का प्रयोग बताया गया है।
(ब) व्याधि विपरीत अन्न—
व्याधिविपरीतमन्नं यथा अतिसारे स्तम्भनं मसूरादि। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
अतिसार रोग में मल को रोकने वाली मसूर की दाल या दही, स्तम्भन के लिये और प्रमेह रोग में जौ का प्रयोग बताया गया है।
(स) व्याधि विपरीत विहार-
व्याधिविपरीतो विहारः, यथा उदावर्ते प्रवाहणम् (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
व्याधिविपरीत विहारस्तु रौक्ष्यगुणतो वातवृद्धौ दिवानिद्रा। (च. नि. 1/10 गंगाधर)
उदावर्त रोग में प्रवाहण करना चाहिये। वात व्याधि में दिवा स्वप्न का निर्देश दिया गया है। यह व्याधि विपरीत
विहार का उदाहरण है।
३. हेतु-व्याधि विपरीत उपशय-
(अ) हेतु व्याधि विपरीत औषध–
यथा वातशोथे वातहरं शोथहरञ्च दशमूलम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि 3)
जिस औषध, आहार व विहार के सेवन से हेतु व व्याधि दोनों का शमन हो तो, वह 'उभय विपरीत उपशय' कहलाता है। यथा- वातिक शोथ में दशमूल क्वाथ देना चाहिये। यह शोथ का हेतु वात एवं शोथ का विरोधी होने के कारण हेतु
व्याधिविपरीत औषध कहा जाता है। क्योकि वातशोथ में दशमूल क्वाथ वातहर एवं शोथहर दोनों होता है।
(ब) हेतु व्याधि विपरीत अन्न-
हेतु व्याधिविपरीतमन्नं, यथा शीतोत्थ ज्वरे उष्ण ज्वरघ्नी च यवागूः। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
शीत जन्य वात से होने वाले ज्वर में पेया का प्रयोग किया जाता है। पेया उष्णवीर्य होने से शीतजन्य वात को
तथा प्रभाव से ज्वर को नष्ट करती है। अन्य उदाहरण - वातजन्य या कफजन्य ग्रहणी में तक्र प्रयोग कराया जाता है,यह वात या कफ दोष और ग्रहणी रोग दोनों को नष्ट करती है।
(स) हेतु व्याधि विपरीत विहार-
यथास्निग्ध दिवास्वप्नजायां तन्द्रायां रुक्षं तन्द्राविपरीतं रात्रिजागरणम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
स्निग्ध पदार्थों के सेवन तथा दिन में सोने से उत्पन्न तन्द्रा को दूर करने के लिये रुक्ष विहार और रात्रि जागरण
करना चाहिये। दिन में शयन शरीर में स्निग्धता आता है, स्निग्धता बढ़ जाने से कफ बढ़ कर तन्द्रा उत्पन्न कर देता है, ऐसी दशा में रात्रि में जागरण करना चाहिये।
४. हेतु विपरीतार्थकारी उपशय-
रोगोत्पादक हेतुओं के सदृश्य व साधर्म्य होते हुए भी जो औषध, आहार व विहार रोग का शमन करे, वह ‘हेतु विपरीतार्थकारी उपशय' कहलाता है।
(अ) हेतु विपरीतार्थकारी औषध-
हेतुविपरीतार्थकाय्यौषधं, यथापित्तप्रधाने पच्यमाने शोथेपित्तकर उष्ण उपनाहः। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
यद्यपि पित्तके बिना पाक नहीं होता है। (न पाक पिताहते) तथापि पित्त प्रधान पच्यमान (पाक प्राप्त)
शोथ पर पित्त वृद्धि कारक उष्ण उपनाह लगाने से लाभ होता है। उपनाह रोगोत्पादक हेतु के समान होते हुये भी रोग की शान्ति करता है, क्योंकि उष्ण उपनाह द्वारा पित्त को उभाड़ कर बाहर निकाल दिया जाता है।
(ब) हेतु विपरीतार्थकारी अन्न-
हेतुविपरितार्थकार्यान्न, यथा पच्यमाने पित्तप्रधाने शोथे विदाहि अन्नम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
पित्तप्रधान शोथ (फोड़े) में विदाही अन्न का सेवन करना।
हेतुविपरितार्थकार्यान्नं यथा रुक्षाहारतियोगजे शुक्रक्षये रुक्षः पुराणगोधूमो वृष्यः। (च. नि. 1/10 गंगाधर)
शुक्रक्षये में रुक्ष पुराण गोधूम का प्रयोग करने से वृष्यवत् गुणवृद्धि होती है।
(स) हेतु विपरीतार्थकारी विहार-
हेतुविपरीतार्थकारी विहारः यथा वातोन्मादे संत्रासनम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि टीका)
यद्यपि भय से वायु की वृद्धि होती है क्योंकि 'कामशोक भयाद्वायु' काम, शोक, भय आदि वात प्रकोपक विहार है, तथापि वातिक उन्माद में रोगी को भय दिखाना वात वर्धक होते हुये भी प्रभाव से रोग की शान्ति करता है।
५. व्याधि विपरीतार्थकारी उपशय-
व्याधि के सदृश्य होते हुए भी जिस औषध-आहार व विहार के सेवन से व्याधि का शमन होता है, वह 'व्याधि विपरीतार्थकारी उपशय' कहलाता है।
(अ) व्याधि विपरीतार्थकारी औषध-
व्याधिविपरीतार्थकारयौषधं, यथा छा वमन कारकं मदनफलादि। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
छर्दि रोग में मदनफल से वमन कराना व्याधि विपरीतार्थकारी औषध का उदाहरण है। इस प्रकार वमन द्वारा दोष निर्हरण होने से रोग शांति हो जाती है।
(ब) व्याधि विपरीतार्थकारी अन्न-
व्याधिविपरीतार्थकार्य्यन्नं, यथा अतिसारे विरेक कारकं क्षीरम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
अतिसार को दूर करने के विचार से क्षीर का प्रयोग किया जाता है यह अतिसारजनक होते हुए भी समस्त दोषों
का शोधन कर अतिसार को शांत करता है।
(स) व्याधि विपरीतार्थकारी विहार-
व्याधिविपरीतार्थकारिविहारो यथाछा वमन साध्यायां वमनार्थे प्रवाहणम्। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
छर्दि में वमन कराने के लिए प्रवाहण करते हैं। इससे दोष बाहर निकल जाता है और रोग की शांति भी हो
जाती है। जैसे गले में दो अंगुलियाँ डालकर क्षोभ उत्पन्न करने से समस्त दोष आसानी से बाहर आ जाते हैं।
(अ) हेतु व्याधि विपरीतार्थकारी औषध-
हेतुव्याधिविपरीतार्थकार्योषधं, यथा अग्निना प्लुष्टेऽगुर्वादिना लेपः। ऊष्णं हि हेतावाग्नौ व्याधौ च
दाहेऽनुगुणं प्रतिभाति।। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
अग्निदग्ध में उष्णगुणयुक्त अगुरु आदि का लेप करने से यह हेतु और व्याधि के समान होते हुए भी उसके
विपरीत कार्य को करता है जिससे रोग शांत हो जाता है।
अथोभयविपरीतार्थकारि चौषधं यथा। कटुम्लोष्णाहारात् पित्तवृद्धौ अम्लमामलकं पित्तहरम्। जाङ्गम
विषे मौलविषं मौले जाङ्गमम्।। (च. नि. 1/10 गंगाधर)
कटु, अम्ल रस प्रधान आहार ग्रहण करने से पित्त की वृद्धि होती है इस पित्त के हरण के लिये अम्लरस प्रधान
आमलक का प्रयोग करना।
जाङ्गम विष के लिए स्थावर विष और स्थावर विष के लिये जङ्गम विष का प्रयोग इसके स्पष्ट उदाहरण है।
(ब) हेतु व्याधि विपरीतार्थकारी अन्न-
हेतुव्याधिविपरीतार्थकार्य्यन्नं, यथा मद्यपानोत्थे मदात्यये मदकारकं मद्यम्।। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
मद्यपानजन्य मदात्यय में (पिये हुए मद्य विपरीत गुण वाले) मदकारक मद्य के पीने से लाभ होता है।
(स) हेतु व्याधि विपरीतार्थकारी विहार-
यथा व्यायामजनित सम्मूढ़वाते जलप्रतरणादिरूपो व्यायामः । अयं
हेतौ व्यायामे व्याधौ च सम्मूढ़ वातेऽनुगुणः प्रतिभाति। (च. नि. 1/10 चक्रपाणि)
व्यायाम से उत्पन्न सम्मूढ़वात (उरुस्तम्भ) में जल में तैरने से रोग दूर होता है (शीतल जल और व्यायाम दोनों
वातवर्धक होते हुये भी यहाँ वायु और उरुस्तम्भ रोग दोनों के शामक होते हैं।) अत: यह उभयविपरीतार्थकारी
व्यायाम करने से वात विकृत होने पर जल में तैरना रूपी व्यायाम।
विरोधी उपचार- हेतु विपरीत औषध वह दवा है जो कारण विरोधी है। उदाहरण के लिए, सर्दी, कठोरता और ठंड के साथ बुखार (ज्वर) कफ और वात की ठंडी गुणवत्ता के कारण होता है, स्वाभाविक रूप से, एक दवा जो कफ और वात के लिए विरोधी है, अच्छी है। इसलिए सोंठ कफ-वात ज्वर के कारक कारकों के उपचार के लिए सर्वोत्तम औषधि है, भले ही यह ज्वर नाशक न हो। यानी इससे बुखार कम नहीं होता है। लेकिन यह कारण का विरोधी है और इसलिए यह प्रभावी ढंग से काम करता है। हेतु विपरीत अन्नम वह भोजन है जो कारण के विरुद्ध है। यदि किसी व्यक्ति को वात-कफ बुखार है, तो वह गरम मसाले के साथ नरम पके हुए चावल दे सकता है। यह कारण का उपचार करता है लेकिन सीधे बुखार को ठीक करता है। हेतु विपरीत विहार एक जीवन शैली विकल्प है जो कारण के विरोधी है। फिर, अगर किसी को वात-कफ बुखार है, तो एक क्लासिक विहार तेज धूप में बैठना है, जो कारण का इलाज करता है लेकिन बुखार का नहीं। व्याधि विपरीत औषध ऐसी दवाएं हैं जिनका एक विशिष्ट रोग के प्रति विरोधी प्रभाव होता है। उदाहरण के लिए, अतिसार की स्थिति में, जड़ी बूटी पाठ या कुटज अतिसार को तुरंत रोक देगी। इसी तरह। एक्जिमा या सोरायसिस के लिए एक विशिष्ट दवा खदीरा है, जबकि मधुमेह के लिए यह ट्यूमर है। व्याधि विपरीत अन्नम् वह भोजन है जो रोग के विरुद्ध है। दस्त के इसी उदाहरण में, ताजा दही के साथ चावल, लाल मसूर का सूप या पका हुआ सेब एक चम्मच घी और एक चुटकी जायफल के साथ दे सकते हैं। यह विशेष रूप से दस्त की बीमारी के लिए है, इसमें शामिल दोषों के बावजूद। व्याधि विपरीत विहार एक जीवनशैली पसंद है जो रोग के प्रति विरोधी है। अतिसार के मामले में, सबसे अच्छा विहार आराम करना, पढ़ना और आराम करना है, जबकि खूब पानी पीना है।
उभय विपर्ता अनाषाध (जिसे हेतु व्याधि विपोर्ट उष-अधा भी कहा जाता है) कारण और रोग दोनों के लिए विरोधी दवाएं हैं। उदाहरण के लिए, यदि अधिक यात्रा से वात प्रकार की सूजन (शोटा) होती है, तो रक्त का ठहराव हो सकता है। सबसे अच्छा रीमेटली दशमूल चाय या दशमाला अरिष्ट (किण्वित शंखनाद)। वात कारण है, सूजन रोग और दशमाला वीटा और सूजन दोनों से छुटकारा दिलाएगा। एक अन्य उदाहरण वात गठिया है, जहां कोई व्यक्ति महानारायण के तेल से मालिश कर सकता है और अदरक और बेकिंग सोडा से स्नान कर सकता है, दर्द और जो बढ़ा हुआ वात दोष है, दोनों के लिए। उभय विपरीत अन्नम एक ऐसा भोजन है जो विकार के कारण का इलाज करेगा और ऊपर दिए गए उदाहरण में, तरबूज खाने से, जो मूत्रवर्धक और वात को शांत करने वाला होता है, वात की सूजन को कम करने में मदद करेगा। उभय विपरीत विहार एक जीवनशैली गतिविधि है जो कारण और बीमारी से निपटेगी। उदाहरण के लिए, पैरों को ऊपर उठाकर लेटने से वात की सूजन से राहत मिलती है, जिससे नसें खाली हो जाती हैं और इस तरह रोग में मदद मिलती है और अतिरिक्त वात को शांत करता है। इसी तरह के उपचार हेतु तदर्थकारी औषधि एक ऐसी दवा है जो कारण की गुणवत्ता के समान है। यह गहन उपचार हो सकता है। उदाहरण के लिए, व्यक्ति को सूजन सूजन के साथ फोड़ा होता है, आयुर्वेद कहता है कि उच्च पित्त के कारण का इलाज करने के लिए गर्म पुल्टिस या अगरु नामक पित्त उत्तेजक पेस्ट लगाने के लिए। इस उपचार से फोड़ा सिर पर आ जाएगा और फिर इसे आसानी से काटकर निकाला जा सकता है। हेतु तदार्थकिरी अन्नम कारण के समान गुणवत्ता वाला भोजन है। पित्त के कारण होने वाले फोड़े के मामले में, गर्म और मसालेदार भोजन एक उपचार है जो इस श्रेणी में आता है। हेतु तदार्थकिरी विहार एक जीवनशैली विकल्प है जो कारण के लिए गुणवत्ता के समान है। फिर से, अदरक पाउडर के साथ गर्म स्नान से पित्त फोड़ा का सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है, जिसके बाद आप मवाद को आसानी से निकाल सकते हैं। व्याधि तदर्थकारी औषध गुण रोग के समान औषधि है। कफ प्रेरित मतली के लिए, नद्यपान या वाचा चाय दें जो उल्टी को प्रेरित करती है और इस तरह अतिरिक्त दोष को समाप्त करती है। व्याधि तदर्थकारी अन्नम रोग के समान गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ हैं, मतली के उदाहरण में, समृद्ध खाद्य पदार्थ मतली को बढ़ा सकते हैं लेकिन इसके परिणामस्वरूप उल्टी और लक्षणों से राहत मिलती है। इसी तरह, विषाक्त पदार्थों के साथ तीव्र अतिसार (अतिसार) में, दूध एक अच्छा तृप्ति हो सकता है, भले ही यह एक रेचक हो, कब्ज वाले खाद्य पदार्थ कभी नहीं देना चाहिए या
दस्त के साम चरण के दौरान जड़ी-बूटियाँ, जब मल के साथ विषाक्त पदार्थ निकलते हैं। इसके बजाय, विषाक्त पदार्थों को दूर करने के लिए दूध या प्रून जूस देकर दस्त को तेज करें। व्याधि तदर्थकारी विहार रोग की गुणवत्ता के समान एक जीवन शैली क्रिया है। जी मिचलाना में, जीभ को रगड़ कर उल्टी करवाएं और गैग रिफ्लेक्स बनाएं। यह विकार (मतली) के लक्षणों को प्रेरित करता है, लेकिन परिणामी उल्टी समस्या से तुरंत राहत दिलाती है। अभय तदर्थकारी औषधि, कारण और रोग दोनों के लिए गुणवत्ता में समान दवाएं हैं। छोटे पित्त पथरी (चावल के दाने के आकार) सहित, उच्च पित्त के कारण जिगर या पित्ताशय की थैली के ठहराव के अधिकांश मामलों में, जैतून का तेल, नींबू का रस और लाल मिर्च सहित, प्रातःकाल में एक लीवर फ्लश दिया जा सकता है। (अल्ट्रासाउंड पित्त पथरी के आकार को दिखा सकता है।) यह फ्लश पित्ताशय की थैली को उत्तेजित करता है और पित्त को इतनी मजबूती से बढ़ाता है कि यह किसी भी अटके हुए पित्त की एक बड़ी रिहाई को ट्रिगर कर सकता है, बाहर निकालने के लिए सांप का जहर अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। औषधीय मारक। पत्थर इसी तरह, यदि कोई व्यक्ति उभय तदार्थकारी अन्नम कारण और रोग दोनों के लिए गुणवत्ता में समान खाद्य पदार्थ हैं। उदाहरण के लिए, पित्त पथरी में, गर्म, मसालेदार भोजन का पित्त उत्तेजक आहार ऊपर बताए गए लीवर फ्लश के साथ मदद कर सकता है। उभय तदर्थकारी विहार एक जीवनशैली पसंद है जो कारण और बीमारी दोनों की गुणवत्ता के समान है। उदाहरण के लिए, यदि कोई अत्यधिक मात्रा में व्यायाम करता है और मांसपेशियां सख्त हो जाती हैं, तो अगले दिन तैराकी या किसी अन्य प्रकार का व्यायाम दर्द से राहत देगा। एक विशिष्ट उदाहरण पानी के प्रवाह के खिलाफ तैरना है, जो विशेष रूप से गठिया के लिए अच्छा है। आयुर्वेद कहता है कि दोष, कारण और रोग का इलाज करना सबसे अच्छा है। दस्त के मामले में एक विशिष्ट दवा कुटज है, एक अच्छा खाना पका हुआ सेब या चावल और दही है, और जीवन शैली के संदर्भ में धीमा और धीरे-धीरे चलना अच्छा है। आधुनिक चिकित्सा सभी विज्ञानों का एक साथ आना है। यदि आप डॉक्टर बनना चाहते हैं, तो आपको भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, शरीर रचना विज्ञान, शरीर विज्ञान और अन्य विज्ञानों का ज्ञान होना चाहिए। रहस्यवाद या अंतर्ज्ञान विज्ञान की जननी है। आयुर्वेद के भीतर होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा और एलोपैथी के मूल सिद्धांत शामिल हैं। उपशय (चिकित्सीय परीक्षण) में, इन उपचारों की नींव मौजूद है। विपरीत चिकित्सा का उपयोग मनोवैज्ञानिक या शारीरिक स्तर पर किया जा सकता है और यह एलोपैथिक चिकित्सा का आधार है। बायोस का मतलब जीवन है, इसलिए एंटीबायोटिक एक ऐसी दवा है जो जीवों के जीवन के खिलाफ काम करती है। इस विरोधी दृष्टिकोण की नींव आयुर्वेद-विपरीत चिकित्सा में है। उपशय में मौजूद एक और उदाहरण है तदार्थकारी चिकित्सा:
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