Skip to main content

निदान


                    आयुर्वेद एक  सांख्य दर्शन पर आधारित है, जिसमें शामिल हैं काया(शरीर) की धारणा का अर्थ है, जिसका प्रभाव भीतर मौजूद है अव्यक्त रूप में कारण। हर कारण का एक निश्चित समय होता है, कारण एक छुपा प्रभाव है, जबकि प्रभाव एक प्रकट कारण है। उसके लिए कारण, निदाना या हेतु (cause/etiology), बीमारी के कारणों का अध्ययन, सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। 
                   आयुर्वेद हमें निदान के सभी पहलुओं को देखने की एक कला देता है। निदाना की परिभाषा है "जो रोग को  प्रकट कर सकता है वो ही निदान है। एक विकार का कारण जानने के लिए सबसे पहले हमे व्याधि कि प्रकृति को समझते है। आयुर्वेद इस बात का गहरा विवरण देता है कि कैसे  विभिन्न कारणों से बीमारी हो सकती है। इनमें कौन सा  गलत आहार, विहार शामिल हैं? जीवन शैली या नौकरी, अनुचित संबंध, असंगत वातावरण। बैक्टीरिया, वायरस, परजीवी और कई अन्य, रोग शरीर के भीतर पैदा होता है जब भी कही खावैगुन्या (शरीर में कमजोर जगह), लेकिन इसे बनाने के लिए कुछ बाहरी या आंतरिक कारण होना चाहिए।
                  जैसे कि आज कल के लोग bakery के fast-food, chilly, spicy, bread  के जैसा खाने से  food poison  जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं और उसके लक्षण मिचली, उल्टी और दस्त के साथ उदर से सम्बन्धित व्याधि होता है। इसी तरह, अगर एक फ्लू महामारी है और आपको सिरदर्द, बदन दर्द और बुखार एक  साथ आता है तो आप तुरंत जान सकते हैं कि यह फ्लू है। प्रभाव से कारण का पता चलता है। रोग प्रभाव है और हर बीमारी का एक निश्चित कारण है। यदि आप आधुनिक चिकित्सा को देखते हैं, जो यह कहता है कि कुछ विकारों का कारण  तो गलत आहार, प्रदूषित पानी या हवा, कीट-जनित रोग, जैसे कि मलेरिया, या व्यावसायिक खतरे। शराब पीने से यकृत विकार पैदा हो सकता है, धूम्रपान करने से मनोवैज्ञानिक विकार उत्पन्न होते है। इसलिए आधुनिक चिकित्सा के रोग मे भी निदान(cause/Etiology) के बारे में बात करती है। हेतु, निमित्त, आयतन, कर्ता, कारण, प्रत्यय, समुत्थान, उत्थान, मूल, योनि, मुख, प्रेरण, प्रकृत,  ये सब  निदान  का एक पर्याय है जिसका अर्थ कारण होता है। 
               कविराज गणनाथ सेन के अनुसार जो भी बाह्य निमित्त कारण (मिथ्याहार-विहार, अभिघात, अग्नि, विष सेवन, जीवाणु आदि) शरीर की धातुओं में विषमता उत्पन्न करता हुआ चिरकाल में या साक्षात् (तुरन्त) रोग को उत्पन्न करता है, उसको ‘हेतु' या 'निदान' कहते हैं।
                 आचार्य वाग्भट के अनुसार सभी रोगों के उत्पादक कारण प्रकुपित हुए दोष ही हैं। आचार्य चरक ने भी रोगों को आगन्तुक तथा निज दो प्रकारों में विभक्त करते हुए निज रोगों का कारण त्रिदोष वैषम्य को ही कहा है। आचार्य सुश्रुत ने भी इसी मत का समर्थन किया है।
        निदान/ हेतु के प्रकार
(क) हेतु को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया गया है-
१. एक प्रकार - आशयापकर्ष
२. दृिविध  प्रकार
(क) १. उत्पादक हेतु, २. व्यञ्जक हेतु
(ख) १. बाह्य हेतु, २. आभ्यन्तर हेतु
(ग) १. प्राकृत हेतु, २. वैकृत हेतु
(घ) १. अनुबन्ध्य, २. अनुबन्ध
(ङ) १. प्रकृति, २. विकृति
३. त्रिविध प्रकार
(क) १. असात्मेन्द्रियार्थ संयोग, २. प्रज्ञापराध, ३. परिणाम
(ख) १. दोष हेतु, २. व्याधि हेतु, ३. दोष व्याधि उभय हेतु
(ग) गति भेद से-१. क्षय, २. वृद्धि, ३. सम
४. चतुर्विध हेतु
१. सन्निकृष्ट हेतु, २. विप्रकृष्ट हेतु, ३. व्यभिचारी, ४. प्राधानिक हेतु।

१. आशयापकर्ष
             अपने आशय  में स्थित दोषों के सम प्रमाण में होते हुए भी, जब वह प्रकुपित वायु द्वारा प्रेरित होकर अपने स्थान से अन्य स्थान पर जाते हैं तो इसे 'आशयापकर्ष' कहते हैं। इस अवस्था में दोष समप्रमाण में होते हुए भी अन्यत्र स्थित होने के कारण विकारोत्पादक होते हैं। ऐसे दोषों को 'आशयापकृष्ट' तथा तद्जन्य व्याधि को 'आशयापकर्षण जन्य' जानना चाहिए। इसको दूसरे शब्दो मे ये भी कह सकते है कि दोषों का अपने आशय से चल कर दूसरे आशय मे जाना हि आशयापकर्ष होता है।
              आचार्य चरक ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया है। क्षीण श्लेष्मा की स्थिति में प्रकुपित हुआ वात स्वस्थान व समप्रमाण में स्थित हुए पित्त को उसके प्रधान स्थान (ग्रहणी) से हटाकर, शरीर के जिस भाग में लेकर विचरण करता है, वहाँ अस्थिर रूप से भेदनवत् पीड़ा एवं दाह को उत्पन्न करता है तथा रोगी को श्रम (थकावट) व दुर्बलता का अनुभव होता है। 
                  चिकित्सा की दृष्टि से 'आशयापकर्ष' की स्थिति का विभेद करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि भ्रमित होकर चिकित्सक पित्तजन्य लक्षणों को देखकर केवल पित्तशामक उपाय करता रहे तो ऐसी व्याधि में कोई लाभ नहीं मिलता, अपितु रोगी की परेशानी और बढ़ती है व अन्य पित्तक्षयजन्य रोग उत्पन्न होने की संभावना भी बनी रहती है। वात प्रकोप जन्य इस स्थिति में सर्वप्रथम वातशामक चिकित्सा करनी चाहिए तथा फिर उसके बाद पित्त  को स्वस्थान में लाने के लिये उपाय करने चाहिए।
 
        २.दृिविध  प्रकार हेतु
 दृिविध भेद से हेतुओं को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया गया है-
(क) १. उत्पादक हेतु- जो कारण दोषों के संचय को उत्पन्न करता है उसे 'उत्पादक हेतु' कहते हैं। जैसे- हेमन्त ऋतु मे कफ का संचय होता है  मधुर रस का प्रयोग करने, अत: मधुर रस 'कफ' का उत्पादक हेतु है।
२.  व्यञ्जक हेतु- पहले से शरीर में संचित दोषों को प्रकुपित करके रोग की उत्पत्ति करने वाले हेतु को 'व्यञ्जक हेतु' कहते हैं। जैसे- हेमन्त ऋतु में संचित हुए कफ का पुन: वसन्त ऋतु में सूर्य की रश्मियों द्वारा पिघलकर कफज रोगों को उत्पन्न (व्यक्त) करना। इनमें सूर्य की किरणें व्यञ्जक हेतु हैं।
(ख) १. बाह्य हेतु–आहार, विहार, काल, जीवाणु, आघात, दंशक कीटों के विष, Electric shock  तथा अन्य मुख द्वारा सेवित विष आदि 'बाह्य हेतु' हैं। ये 'सद्योमारक' अथवा 'दोष प्रकोपण पूर्वक' व्याधियों को उत्पन्न करते हैं।
२. आभ्यन्तर हेतु- शारीरिक दोष व दूष्य रोगोत्पादक 'आभ्यन्तर हेतु'  होते हैं।
(ग) १. प्राकृत हेतु -ऋतु-स्वभावात् दोष प्रकोप 'प्राकृत' कहलाता है। यथा-वसन्त ऋतु में कफ दोष का, शरद ऋतु में पित्त दोष का एवं वर्षा ऋतु में वात दोष का प्रकोप 'प्राकृत' है। क्योकि इस ऋतु मे दोष अपने आप प्रकुपित होते है।
२. वैकृत हेतु- अन्य ऋतु में दोष प्रकोप 'वैकृत' कहलाता है। यथा-वसन्त ऋतु में वात या पित्त दोष का, शरद में वात या कफ दोष का तथा वर्षा ऋतु में पित्त या कफ दोष का प्रकोप 'वैकृत' कहलाता है।
(घ) १. अनुबन्ध्य हेतु- अनुबन्ध्य का अर्थ होता है प्रधान। स्वप्रकोपक निदान के सेवन से प्रकुपित हुआ जो दोष स्वतन्त्र हो तथा जिसके लक्षण स्पष्टत: व्यक्त हों, वह अनुबन्थ्य' कहलाता है तथा इसका शास्त्रोक्त विधि से शमन होता है।
२. अनुबन्ध हेतु-जो दोष अन्य दोष की अपेक्षा करने वाला (परतन्त्र) हो, जिसके लक्षण स्पष्ट न हों तथा जिसका शास्त्रोक्त विधि से प्रकोप एवं प्रशमन न हो, वह अनुबन्ध' या 'अप्रधान' दोष हेतु कहलाते हैं।
(ङ) १. प्रकृतित हेतु- जो व्यक्ति जिस प्रकृति का है, उसी दोष के प्रकोप से होने वाला रोग 'प्रकृतिजन्य' कहलाता है। प्रकृति सदृश होने से ऐसा रोग ‘कृच्छ्रसाध्य होता है। यथा-वात प्रकृति मनुष्य में होने वाले वात रोग कष्टसाध्य होते हैं।
२. विकृतित हेतु-  मिथ्याहार विहार के सेवन से व्यक्ति की अपनी प्रकृति से अन्य दोषों के प्रकोप से होने वाले रोग को ‘विकृतिजन्य' कहते हैं तथा प्रकृति से भिन्न होने के कारण यह सुखसाध्य होते हैं। यथा वात प्रकृति मनुष्य को होने वाले पित्तज या कफज रोग अपेक्षाकृत सुखसाध्य होते हैं।
      ३. त्रिविध प्रकार- निदान के निम्न त्रिविध भेद होते हैं-
१. असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग
पञ्च ज्ञानेन्द्रियों-श्रोत्र, त्वक्, नेत्र, जिह्वा व घ्राण का अपने विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध) के साथ अतिमात्रा में संयोग, अयोग व मिथ्यायोग 'असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग' कहलाता है तथा यह विभिन्न रोगों को उत्पन्न करता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों का त्रिविध प्रकार से असात्म्य संयोग होने का कारण असात्मेन्द्रियार्थ संयोग १५ प्रकार का होता है। सभी इन्द्रियों में व्यापक होने के कारण तथा मन से सदा समवाय सम्बन्ध रहने के कारण, त्वचा से असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग होना ही सभी इन्द्रियों से असात्म्य संयोग होना समझा जाता है। इसीलिए असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग को एक प्रकार का भी माना जाता है। पंच ज्ञानेन्द्रियों के असात्मेन्द्रियार्थ संयोग के लक्षण यहाँ वर्णित किए जा रहे हैं.।
१. (i) चक्षुरिन्द्रियविषयातियोग–अत्यधिक तेज युक्त सूर्य, टेलीविजन एवं विद्युत आदि के रूपों को अधिक समय तक देखते रहना नेत्रेन्द्रियों का अतियोग है।
(ii) चक्षुरिन्द्रियविषयायोग-किसी भी दृश्य या वस्तु को बिल्कुल न देखना अथवा आँखों पर पट्टी बाँध लेना चक्षुरिन्द्रियों का अयोग है।
(iii) चक्षुरिन्द्रियविषय मिथ्यायोग-वीभत्स, अद्भुत, भयंकर, डरावने, विकृत, उग्र व अतिदूरस्थ दृश्यों को देखना चक्षुरिन्द्रिय का मिथ्यायोग है।
२. (i) कर्णेन्द्रियविषयातियोग- ऊँचे शब्दों को अधिक समय तक सुनना यथा-मेघ की गर्जन, नगाड़े, ढोल आदि को सुनना कर्णेन्द्रिय का अतियोग है।
(ii) कर्णेन्द्रियविषयायोग-किसी भी प्रकार के स्वर को सर्वथा न सुनना कर्णेन्द्रिय का अयोग है।
(iii) कर्णेन्द्रियविषयमिथ्यायोग–अप्रिय, कठोर, दुःखदायक, विनाशसूचक, तिरस्कार सूचक शब्दों को सुनना कणेन्द्रिय का मिथ्यायोग है।
३. (i) घ्राणेन्द्रियविषयातियोग–अति उग्र, तीक्ष्ण गन्धों को सूंघना तथा अतिमात्रा में सूंघना घ्राणेन्द्रिय का अतियोग है।
(ii) घ्राणेन्द्रियविषयायोग-किसी भी प्रकार की गन्ध को सर्वथा न सूंघना घ्राणेन्द्रिय का अयोग है।
(iii) घ्राणेन्द्रियमिथ्यायोग–अप्रिय, अपवित्र, दुर्गन्धित, सड़ी-गली वस्तु गन्ध को सूंघना घ्राणेन्द्रिय का मिथ्यायोग कहलाता है।
४. (i) रसनेन्द्रियविषयातियोग-किसी एक रस का निरन्तर सेवन करना रसनेन्द्रिय का अतियोग कहलाता है।
(ii) रसनेन्द्रियविषयायोग-रसहीन द्रव्यों का सेवन करना रसनेन्द्रिय का अयोग कहलाता है।
(iii) रसनेन्द्रियविषयमिथ्यायोग-विकृत व असात्म्य रसों का भक्षण करना रसनेन्द्रिय का मिथ्यायोग कहलाता है।
५. (i) स्पर्शनेन्द्रियविषयातियोग-स्नान, अभ्यंग, उबटन, लेपादि स्पृशों का अतिप्रयोग करना अथवा अतिउष्ण, शीतल द्रव्यों का इनमें प्रयोग करना स्पर्शनेन्द्रिय का अतियोग है।
(ii) स्पर्शनेन्द्रियविषयायोग-स्नान, अभ्यंग आदि स्पृशों का सर्वथा प्रयोग न करना स्पर्शनेन्द्रिय का अयोग है।
(iii) स्पर्शनेन्द्रियविषयमिथ्यायोग-आघात लगना, विषमस्तरीय वस्तुओं का स्पर्श होना, अपवित्र, अप्रिय, विषैली वस्तुओं का स्पर्श होना, शीत-उष्ण का क्रम विरुद्ध सेवन करना स्पर्शनेन्द्रिय का मिथ्यायोग है।
२. प्रज्ञापराध- धी (बुद्धि), धृति (धैर्य) व स्मृति (स्मरण शक्ति) के भ्रष्ट हो जाने से व्यक्ति अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है जिससे शारीरिक व मानसिक सभी प्रकार के दोष प्रकुपित होते हैं, ऐसे अशुभ कर्मों को ही प्रज्ञापराध' कहते हैं। बुद्धि से यथार्थ ज्ञान न होना और अनुचित रूप से कर्मों में प्रवृत्त होने को ही प्रज्ञापराध जानना चाहिए।
वाणी, मन और शरीर की प्रवृत्ति या चेष्टा को कर्म कहते हैं। वाणी, मन और शरीर द्वारा होने वाली चेष्टाओं के त्रिविध विकल्प-अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग को प्रज्ञापराध जानना चाहिए।
इन कर्मों के द्वारा जनित प्रज्ञापराध के लक्षण यहाँ वर्णित किये जा रहे हैं-
१. वाणिज प्रज्ञापराध-(i) बहुत अधिक बोलना वाणी का अतियोग है। (ii) सर्वथा न बोलना व अत्यल्प बोलना वाणी का अयोग है। (iii) अप्रिय वचन बोलना, चुगली करना, असत्य बोलना, बिना अवसर व बिना प्रसंग के बोलना, असम्बद्ध भाषण करना वाणी का मिथ्यायोग है।
२. मन द्वारा प्रज्ञापराध-(i) अत्यधिक चिन्तन, तर्क-वितर्क व विचार करना मन का अतियोग है। (ii) मन के कर्मों का सर्वथा न करना अयोग है। (iii) भय, शोक, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि मानसिक कर्मों का मिथ्यायोग है।
३. शारीरिक प्रज्ञापराध-(i) शरीर से अत्यधिक परिश्रम करना, चंक्रमण करना, व्यायाम करना, बोझ उठाना आदि शारीरिक अतियोग है। (ii) अधारणीय वेगों को धारण करना, अप्रवृत्त वेगों को हठपूर्वक प्रेरित करने की चेष्टा करना, विषम भूमि में या विषम रूप से फिसल जाना, शारीरिक अंगों को विषम रूप से रखना या अवलम्बित
रखना, अंगों को अत्यधिक मसलकर या खुजलाकर विकृत करना, चोट लगना, अंगों को जोर से मसलना, प्राण वायु को रोकना, शरीर को व्रत-उपवास-धूप-अग्नि आदि से क्लेश पहुँचाना आदि कर्म शरीर के मिथ्यायोग हैं।
३. परिणाम-  परिणाम का अभिप्राय है—'काल'। हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुएँ क्रमश: शीत, गरमी तथा वर्षा लक्षण वाली होती हैं। इन्हीं को एक वर्ष कहा जाता है। काल का अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों को उत्पन्न कर सकता है।
१. काल का अतियोग- ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक गर्मी का होना, हेमन्त ऋतु में अत्यधिक ठण्ड पड़ना तथा वर्षा ऋतु में अत्यधिक पानी बरसना, काल का अतियोग है।
२. काल का अयोग-ऋतुओं का अपने विशेष लक्षणों से रहित होना या अल्प लक्षणों का होना, काल का अयोग है। यथा-ग्रीष्म ऋतु में गर्मी का कम होना या एकदम न होना, हेमन्त ऋतु में कम ठण्ड पड़ना या एकदम ठण्ड न पड़ना,वर्षा ऋतु में पानी न बरसना, ये काल का अयोग है।
३. काल का मिथ्यायोग- उक्त ऋतुओं में अपने-अपने विशेष लक्षणों के विपरीत लक्षणों का उत्पन्न होना काल का मिथ्यायोग है। यथा-ग्रीष्म ऋतु में गर्मी न होकर शीत पड़ना या वर्षा होना, हेमन्त ऋतु में ठण्ड न होकर गर्मी होना या वर्षा होना, वर्षा ऋतु में शीत या गर्मी होना, ये काल के मिथ्यायोग हैं।
(ख) पुन: दोषादि भेद से हेतु तीन प्रकार का होता है।
१. दोष हेतु- जिन हेतुओं के सेवन से दोषों का संचय, प्रकोप व प्रशम होता है, वे ‘दोष हेतु' कहलाते हैं यथा मधुरादि रस। शीत ऋतु में स्वभावतः मधुर रस की उत्पत्ति होकर कफ का संचय होता है तथा भोजन के प्रथम अवस्थापाक के दौरान कफ की वृद्धि होती है। यही वृद्ध हुए दोष अवस्था पाकर अधिक प्रकुपित होकर रोगोत्पत्ति करते हैं। शीत ऋतु में संचित कफ वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से द्रवित होकर प्रकुपित जाता है तथा अनेक प्रकार की कफज व्याधियों को उत्पन्न करता है।
            उदाहरण के लिए, बीन्स और कच्ची सब्जियाँ वात बढ़ाती हैं, खट्टे-खट्टे फल और गर्म मसालेदार भोजन पित्त बढ़ाते हैं, और ठंडी डेयरी उत्पाद कफ को बढ़ाते हैं। 
२. व्याधि हेतु-जो हेतु दोष की अपेक्षा नहीं करता तथा व्याधि को उत्पन्न करने वाले विशेष कारण से उत्पन्न होता है, वह 'व्याधि हेतु' कहलाता है। यथा-मृत्तिका भक्षण जन्य पाण्डु में मिट्टी खाना निश्चित रूप से रोगोत्पादक होने से पाण्डु का 'व्याधि हेतु' कहलाता है।
३. दोष-व्याधि उभय हेतु-जो हेतु किसी विशिष्ट दोष का प्रकोपक हेतु होते हुए भी किसी विशिष्ट रोग को भी उत्पन्न करे, वह हेतु उभय हेतु कहलाता है। यथा- हाथी, ऊँट एवं घोड़े की सवारी करने से वात का प्रकोप होता है तथा विदाही अन्न के सेवन से पित्त व रक्त की वृद्धि होती है तथा लटके हुए अंगों व सन्धियों में इसका प्रभाव
होता है। यह हेतु वातरक्त रोग को उत्पन्न करते हैं। यद्यपि ये हेतु दोषपूर्वक ही व्याधि की उत्पत्ति करते हैं, तथापि ये जिस प्रकार निश्चित रूप से दोषप्रकोपक हैं, उसी प्रकार निश्चित व्याधि के उत्पादक भी हैं, अतः इन्हें 'उभय हेतु' कहा जाता है।
४. चतुर्विध हेतु- सनिकृष्ट, विप्रकृष्ट, व्यभिचारी एवं प्राधानिक भेद से हेतु चार प्रकार का होता है।
१. सन्निकृष्ट हेतु- दोषों का संचय हुए बिना, स्वभाव से ही दिन-रात-भोजन के आदि, मध्य व अन्त में क्रमश: कफ, पित्त व वात का प्रकोप होता है। ये दोष प्रकोप के ‘सनिकृष्ट हेतु' हैं।
                    संनिकृष्ट का अर्थ है तत्काल या लघु-अभिनय जिसके कारण निकटतम या सबसे तात्कालिक कारण जो विकृति को पूरा करता है और बीमारी पैदा करता है। यह एक छोटा अभिनय है। यह रोग की प्रक्रिया के संपर्क में आने के बाद जल्द ही पूरा कर सकता है, उदाहरण के लिये- चॉकलेट खाने से जब कफ या पित्त को बढाता है तो यह सन्निकृष्ट कारण विकृति को पूरा करता है ताकि रोग कारण के संपर्क में आने के तुरंत बाद प्रकट हो। उदाहरण के लिये नीचे गिर रहे हैं और शरीर की  हड्डी टूट जाये तो इसको सन्निकृष्ट ही कह सकते है।
२. विप्रकृष्ट हेतु–एक नियत समय तक दोषों के संचय के बाद दोष प्रकोप कर रोग उत्पन्न करने वाले हेतुओं को रोग का 'विप्रकृष्ट हेतु' जानना चाहिए। यथा-हेमन्त ऋतु में संचित कफ वसन्त ऋतु में सूर्य की गर्मी से पिघलकर कफज रोगों को उत्पन्न करता है। इसमें सूर्य की गर्मी विप्रकृष्ट हेतु है।
                 विप्रकृष्ट मे व्यधि तक पहुचने को लंबा समय लगता है। विप्रकृष्ट दूर या दीर्घकालीन कारण है। इसका कारण इतना हल्का है कि यह अल्पावधि में रोग नहीं पैदा करता, लेकिन दोष को फैलने का कारण बनता है।, अंततः धातू अग्नियों पर हावी हो जाता है और धातु को प्रभावित करेगा। जब कारण महीनों या वर्षों तक एक साथ होता है, तब यह बीमारी पैदा करता है। उदाहरण के लिये   धूम्रपान एक ऐसा कारण है जिसमे अल्पावधि में यह खांसी जैसी समस्याओं का कारण बन सकता है, लेकिन लंबे समय में यह फेफड़ों का कैंसर पैदा कर सकता है।  तो  धुम्रपान का यह आदत विप्रकृत् हेतु हैं।
३. व्यभिचारी हेतु- जो हेतु कभी रोग को उत्पन्न करे तथा कभी रोग को उत्पन्न करने में असमर्थ हो, वह 'व्यभिचारी' हेतु कहलाता है। निर्बल या अल्प बल युक्त होने से यह हेतु अल्पांश में ही दोषों को प्रकुपित करता है, अत: रोग की उत्पत्ति नहीं होती। यदि रोग उत्पन्न होता भी है तो वह अल्प लक्षणों वाला होता है। वही हेतु जब बलवान होता है, तो रोगोत्पादक हो जाता है। इस प्रकार से कभी रोग को उत्पन्न करने तथा कभी न करने से हेतु के स्वभाव में व्यभिचार होने से वह हेतु व्यभिचारी कहा जाता है।
            व्याभिचार का अर्थ है, विविध, विविध। व्यभिचार कई कमजोर या छोटे कारण होते हैं जिनका संचयी प्रभाव होता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति कुछ ककड़ी के बाद आइसक्रीम  खाता है। फिर ठंडे पानी में तैरता है  और बाद में ठंडी हवा में बैठकर आइस्ड सोडा पीता है तो ये कई कफ-उत्तेजक कारण हैं, जो गुणवत्ता में समान हैं। शाम तक व्यक्ति को एक खराब सर्दी या यहां तक ​​कि निमोनिया हो सकता है, जो कि एक कफ विकार है। जो  वह  व्यभिचारी हेतु है। एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें जो योग के दौरान जागता है और 25 सूर्य नमस्कार करता है, फिर भारी वेटलिफ्टिंग और जॉगिंग करता है। उस शाम, वह अपनी पत्नी की मदद करता है और वह बस एक छोटी सी बाल्टी उठाने मे उसके कमर मे दर्द होने लगता है। यह इन सभी के संचित प्रभाव के कारण बीमारी होती है।
              
४. प्राधानिक हेतु —जो हेतु अपने उग्र स्वभाव के कारण तुरन्त दोषों को प्रकुपित करके रोग की उत्पत्ति करते हैं, वह 'प्राधानिक हेतु' कहलाते हैं। जैसे—विष आदि।
             प्रधान का अर्थ प्रधान कारण है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति एक मक्खी निगलता है और अचानक उल्टी करता है। मक्खी प्रमुख कारण है। कारण इतना मजबूत है कि यह एक शक्तिशाली प्रतिक्रिया को ट्रिगर करता है। गंभीर एलर्जी  की  प्रतिक्रिया से एनाफिलेक्टिक झटका इस तरह के एक मजबूत कारण का एक उदाहरण है,  जैसा कि किसी को चाकू मार रहे है और दूषित बैक्टीरिया  से युक्त पानी पीते है तो यह मजबूत कारण व्यधि होने का। यह  प्रधान कारण एक प्रक्रिया में पूरी तरह से दोषों को प्रकुपित करता है। 

                    

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

Introduction to cell injury and it's Causes

 Introduction to cell injury and it's Causes. Definition of cell injury- Cell injury defined as the effect of a variety of stress due to etiological agents a cell encounters resulting in change in its internal and external environmental. ↬ cells actively interact with their environment, constantly adjusting their structure and function to accommodate/ adopt changing demands and extracellular stresses. where as stress means increase work load in heart.  ↬ Intracellular substance of the cells is normally tightly regulated such as Homeostasis ↬ As cells encounter physiologic stresses or potentially injurious conditions(such as nutrient deprivation) ↬ when body cell are exposed to antigen then they have inbuilt mechanism to deal with change in environment or adaptation but cellular injury occurs when a stress exceeds the cells can not ability to adopt. Cellular adaptation- The cells of our body they have the power or capacity to a response to stressful by changin...

उपशाया/अनुपशाय

     १. गूढ़ लिङ्गं व्याधिमुपशयानुपशयाभ्यां परीक्षेत्।। (च.वि. ४/८)          किसी व्याधि के लक्षण अति अल्प हो अथवा छुपे हुये हो तो रोगों का निदान (Diagnosis) उपशय व अनुपशय द्वारा किया जाता है। गूढ़ लिङ्ग व्याधियों की परीक्षा 'उपशय-अनुपशय' द्वारा की जाती है। जैसे- शोथ स्नेहन, उष्ण उपचार तथा मर्दन से शांत होता है स्नेहनादि को उपशय कहते हैं।           २.    हेतु व्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तकारिणाम्।                  औषधान्न विहारणामुपयोगं सुखावहम्।।                  विद्यादुपशयं व्याधेः सहि सात्म्यमिति स्मृतः।                 विपरीतोऽनुपशयो व्याध्यसात्म्यमिति स्मृतः।। (अ.ह.नि. १/६-७)   उपशय:- उपशय का अर्थ है चिकित्सीय परीक्षण या मार्गदर्शन और प्राचीन आयुर्वेद की नैदानिक ​​कला में नैदानिक ​​उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता था। "औषध अन्ना विहरनम उपयोगम सुखावाहम्" का अर्थ है ...

Oedema

  Definition of brief description    of Edema ,Shock ,Haemorrage Embolism ,Ischemia & Infarction:- Oedema :- Excess fluid in the body tissue (extra vascularly ) means (excess fluid in the body either inside the cells which is intracellular edema either or in the interstitium in the body cavity which is called extra cellular edema .                                                  Or Edema is defined as abnormal & excessive accumulation of “free fluid” in interstitial tissue space and serous cavities. Free fluid in interstitial fluid- ·           It is also called tissue space ·           Its surrounded by tissue cells ·    ...