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Showing posts from June, 2021

उपशाया/अनुपशाय

     १. गूढ़ लिङ्गं व्याधिमुपशयानुपशयाभ्यां परीक्षेत्।। (च.वि. ४/८)          किसी व्याधि के लक्षण अति अल्प हो अथवा छुपे हुये हो तो रोगों का निदान (Diagnosis) उपशय व अनुपशय द्वारा किया जाता है। गूढ़ लिङ्ग व्याधियों की परीक्षा 'उपशय-अनुपशय' द्वारा की जाती है। जैसे- शोथ स्नेहन, उष्ण उपचार तथा मर्दन से शांत होता है स्नेहनादि को उपशय कहते हैं।           २.    हेतु व्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तकारिणाम्।                  औषधान्न विहारणामुपयोगं सुखावहम्।।                  विद्यादुपशयं व्याधेः सहि सात्म्यमिति स्मृतः।                 विपरीतोऽनुपशयो व्याध्यसात्म्यमिति स्मृतः।। (अ.ह.नि. १/६-७)   उपशय:- उपशय का अर्थ है चिकित्सीय परीक्षण या मार्गदर्शन और प्राचीन आयुर्वेद की नैदानिक ​​कला में नैदानिक ​​उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता था। "औषध अन्ना विहरनम उपयोगम सुखावाहम्" का अर्थ है ...

लक्षण

रूप/लक्षणः                    रूप रोग के प्रमुख लक्षण हैं जो रोग  के क्रियाकाल के  पांचवें (व्यक्तवस्था ) चरण के दौरान दिखाई देते हैं।व्यक्तवस्था  रोग के प्रकट होने का चरण है पूर्व रूप के अधूरे लक्षण रूप में पूर्ण हो जाते हैं । पहले दो चरण (सञ्चय, प्रकोप) मे दोष अपने आशय मे रहते है। लेकिन उसके बाद दोष(वात, पित्त, कफ) अपने आशय को छोड़ कर पूरे शरीर में घूमने लगता है। और जब कही भी कोई कमजोर जगह (Infection) मिलता है तब वह वही स्थानसंस्रय (रुककर) हो कर व्याधि उत्पन्न करता है। रूप/लक्षण  न सिर्फ़  केवल पूर्व रूप के अधूरे लक्षण  है जो बाद मे अधिक पूर्ण हो जाते हैं बल्कि अतिरिक्त लक्षण  भी प्रकट होते हैं । संहिता के अनुसार:- परिभाषा             व्याधि का व्यक्त अवस्था  ही 'रूप' कहलाता है। पूर्वरूप जब व्यक्त हो जाते हैं तो उन्हें 'रूप' कहा जाता है तथा वह उत्पन्न व्याधि के बोधक लक्षण होते हैं। स्रोतोदुष्टि होने के उपरान्त दोष-दूष्य सम्मूर्च्छना पूर्ण होने पर...