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लक्षण

रूप/लक्षणः
                   रूप रोग के प्रमुख लक्षण हैं जो रोग  के क्रियाकाल के  पांचवें (व्यक्तवस्था ) चरण के दौरान दिखाई देते हैं।व्यक्तवस्था  रोग के प्रकट होने का चरण है पूर्व रूप के अधूरे लक्षण रूप में पूर्ण हो जाते हैं । पहले दो चरण (सञ्चय, प्रकोप) मे दोष अपने आशय मे रहते है। लेकिन उसके बाद दोष(वात, पित्त, कफ) अपने आशय को छोड़ कर पूरे शरीर में घूमने लगता है। और जब कही भी कोई कमजोर जगह (Infection) मिलता है तब वह वही स्थानसंस्रय (रुककर) हो कर व्याधि उत्पन्न करता है। रूप/लक्षण  न सिर्फ़  केवल पूर्व रूप के अधूरे लक्षण  है जो बाद मे अधिक पूर्ण हो जाते हैं बल्कि अतिरिक्त लक्षण  भी प्रकट होते हैं ।
संहिता के अनुसार:-
परिभाषा
            व्याधि का व्यक्त अवस्था  ही 'रूप' कहलाता है। पूर्वरूप जब व्यक्त हो जाते हैं तो उन्हें 'रूप' कहा जाता है तथा वह उत्पन्न व्याधि के बोधक लक्षण होते हैं। स्रोतोदुष्टि होने के उपरान्त दोष-दूष्य सम्मूर्च्छना पूर्ण होने पर जो लक्षण उत्पन्न हुई व्याधि का ज्ञान कराते हैं, उन्हें 'रूप' कहते हैं।

प्रर्याय :- संस्थान, व्यञ्जन, लिङ्ग, लक्षण, चिह्न, आकृति तथा रूप- ये परस्पर प्रर्यायवाचक शब्द है।
1. लिङ्ग- लिङ्गयते प्रादुर्भुतो भावः स्वरूपतो ज्ञीयते अनेनेति लिङ्गम्। (च. नि. 1/9) (गंगाधर)
                     जिनके द्वारा उत्पन्न व्याधि के स्वरूप का ज्ञान होता है उन्हें लिंग कहते हैं।
2. आकृति - एवम् आक्रियते ज्ञायतेऽनेनेत्याकृतिः। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                     जो लक्षण व्याधि के उत्पन्न होने के बाद दिखाई देते हैं।
3. लक्षण - लक्ष्यते ज्ञायतेऽनेनेति लक्षणं। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                    रोगी अपनी अवस्था विशेष का ज्ञान लक्षणों द्वारा ही करवाता हैं।
4. चिह्न - चिन्हते ज्ञायतेऽनेनेति चिह्न। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                 वैद्या  द्वारा जिनका ज्ञान किया जाता है उन्हें चिह्न कहते हैं।
5. संस्थान - संस्थीयते ज्ञायतेऽनेनेति संस्थान। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                   वैद्य द्वारा रोगी के स्थान विशेष अथवा रोगानुसार किसी स्थान विशेष की परीक्षा द्वारा जिसे  
                        जाना  जाता है उसे संस्थान कहते हैं।
6. व्यंजन - व्यज्यते ज्ञायतेऽनेनेति व्यञ्जन। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                   जो लक्षण निश्चित रुप से उस व्याधि विशेष के साथ ही सम्बन्धित रहते है उन्हें व्यंजन कहते हैं।
7. रूप - रुप्यते ज्ञायतेऽनेनेति रूपम्। (च. नि. 1/9 गंगाधर टीका)
                 रोगी के बाह्य रूपात्मक दृष्टि से देखे गये सामान्य व्याधि लक्षण रूप कहलाते हैं।
रुप के  भेद:-
 सामान्य-विशिष्ट-प्रत्यात्म लक्षण भेद से रुप तीन प्रकार का होता है। 
(१) सामान्य लक्षण- जो लक्षण व्यधि मे समान्यतौर पर मिलते है, उन्हें उस व्याधि का 'सामान्य लक्षण' कहते है। यथा- सन्ताप, स्वेदावरोध एवं सर्वांग पीड़ा-ज्वर के 'सामान्य लक्षण' हैं तथा प्रत्येक प्रकार के ज्वर में पाये जाते हैं।
(२) विशिष्ट लक्षण– जो लक्षण दोष के अनुसार विशेष लक्षण का ज्ञान कराता है  तो उस लक्षण को व्याधि का विशिष्ट लक्षण' कहा जाता है। यथा-
(क) वातज ज्वर -में शरीर में कपकँपी, विषम वेग, मुख सूखना तथा जम्भाई आना।
(ख) पित्तज ज्वर -में तीक्ष्ण वेगयुक्त ज्वर, अतिसार, वमन, तृषाधिक्य तथा भ्रम होना।
(ग) कफज ज्वर -में मन्दवेगी ज्वर आना, आलस्य, अरुचि, कफष्ठीवन तथा निद्राधिक्य आदि कफज ज्वर के विशिष्ट लक्षण हैं।
(३) प्रत्यात्म लक्षण- ऐसा लक्षण जो उस व्याधि विशेष की उत्पत्ति में “समवाय सम्बन्ध' से बोधक का कार्य करे,  या व्याधि के वह लक्षण जिससे तुरन्त उस व्याधि का बोध हो जाये उसे उस व्याधि का 'प्रत्यात्म लक्षण' कहा जाता है। यथा- शरीर व मन में सन्ताप होना ज्वर का प्रत्यात्म लक्षण है। प्रभूताविल मूत्रता प्रमेह का प्रत्यात्म लक्षण है। उत्सेध उदर रोग का तथा प्रवाहण प्रवाहिका का 'प्रत्यात्म लक्षण' है।
२. लक्षण और चिह्न भेद से-
(१) लक्षण (Symptom)-रोगी से पूछकर व्याधि के जिन-जिन रूपों का ज्ञान किया जाता है, वह ‘लक्षण' कहलाते हैं। यथा-भोजन में रुचि, पिपासा, क्षुधा, निद्रा आदि। रोगी द्वारा चिकित्सक को सम्बन्धित रोग के लक्षण (Symptom) मुख्य व्यथा के रूप में बताए जाते हैं।
(२) चिह्न (Signs)—वह लक्षण जो प्रत्यक्ष रूप से रोगी के शरीर में दिखाई पड़े तथा जो चिकित्सक द्वारा जानने योग्य हों, वह चिह्न कहलाते हैं। यथा-मुख-नेत्र-त्वचा आदि के वर्ण, पाण्डुता, रुक्षता, श्वासगति, हृदयगति, नाड़ी आदि विषय। व्याधि एवं लक्षण में भिन्नताव्याधि एवं लक्षण में निम्न अन्तर होते हैं





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